सफ़र पे आज वही कश्तियाँ निकलती हैं
जिन्हें ख़बर है हवाएँ भी तेज़ चलती हैं
मिरी हयात से शायद वो मोड़ छूट गए
बग़ैर सम्तों के राहें जहाँ निकलती हैं
हमारे बारे में लिखना तो बस यही लिखना
कहाँ की शमएँ हैं किन महफ़िलों में जलती हैं
बहुत क़रीब हुए जा रहे हो सोचो तो
कि इतनी क़ुर्बतें जिस्मों से कब सँभलती हैं
'वसीम' आओ इन आँखों को ग़ौर से देखो
यही तो हैं जो मिरे फ़ैसले बदलती हैं
ग़ज़ल
सफ़र पे आज वही कश्तियाँ निकलती हैं
वसीम बरेलवी