रफ़्तगाँ का भी ख़याल ऐ अहल-ए-आलम कीजिए
आलम-ए-अर्वाह से सोहबत कोई दम कीजिए
हालत-ए-ग़म को न भूला चाहिए शादी में भी
ख़ंदा-ए-गुल देख कर याद अश्क-ए-शबनम कीजिए
ऐब-ए-उल्फ़त रोज़-ए-अव्वल से मिरी तीनत में है
दाग़-ए-लाला के लिए क्या फ़िक्र-ए-मरहम कीजिए
अपनी राहत के लिए किस को गवारा है ये रंज
घर बना कर गर्दन-ए-मेहराब को ख़म कीजिए
इश्क़ कहता है मुझे राम उस बुत-ए-वहशी को कर
हुस्न की ग़ैरत उसे समझाती है रम कीजिए
रात सोहबत गुल से दिन को हम-बग़ल ख़ुर्शीद से
रश्क अगर कीजे तो रश्क-ए-बख़्त-ए-शबनम कीजिए
दीदा-ओ-दिल को दिखाया चाहिए दीदार-ए-यार
हुस्न के आलम से आईनों को महरम कीजिए
शक्ल-ए-गुल हँस हँस के रोज़-ए-वस्ल काटे हैं बहुत
हिज्र की शब सुब्ह रो कर मिस्ल-ए-शबनम कीजिए
थी सज़ा अपनी जो शादी-मर्ग क़िस्मत ने किया
हिज्र में किस ने कहा था वस्ल का ग़म कीजिए
आप की नाज़ुक कमर पर बोझ पड़ता है बहुत
बढ़ चले हैं हद से गेसू कुछ इन्हें कम कीजिए
उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
रोइए किस के लिए किस किस का मातम कीजिए
रोज़ मर्दुम शब किए देता है सुर्मा पोछिए
ख़ून होते हैं बहुत शौक़-ए-हिना कम कीजिए
आईने को रू-ब-रू आने न दीजे यार के
शाना से 'आतिश' मिज़ाज-ए-ज़ुल्फ़ बरहम कीजिए
ग़ज़ल
रफ़्तगाँ का भी ख़याल ऐ अहल-ए-आलम कीजिए
हैदर अली आतिश