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क़ुर्बतों से कब तलक अपने को बहलाएँगे हम | शाही शायरी
qurbaton se kab talak apne ko bahlaenge hum

ग़ज़ल

क़ुर्बतों से कब तलक अपने को बहलाएँगे हम

ज़ेहरा निगाह

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क़ुर्बतों से कब तलक अपने को बहलाएँगे हम
डोरियाँ मज़बूत होंगी छूटते जाएँगे हम

तेरा रुख़ साए की जानिब मेरी आँखें सू-ए-महर
देखना है किस जगह किस वक़्त मिल पाएँगे हम

घर के सारे फूल हंगामों की रौनक़ हो गए
ख़ाली गुल-दानों से बातें करके सो जाएँगे हम

अध-खुली तकिए पे होगी इल्म-ओ-हिकमत की किताब
वसवसों वहमों के तूफ़ानों में घर जाएँगे हम

उस ने आहिस्ता से 'ज़ेहरा' कह दिया दिल खिल उठा
आज से इस नाम की ख़ुशबू में बस जाएँगे हम