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क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो | शाही शायरी
qais jangal mein akela hai mujhe jaane do

ग़ज़ल

क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो

मियाँ दाद ख़ां सय्याह

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क़ैस जंगल में अकेला है मुझे जाने दो
ख़ूब गुज़रेगी जो मिल बैठेंगे दीवाने दो

लाल डोरे तिरी आँखों में जो देखे तो खुला
मय-ए-गुल-रंग से लबरेज़ हैं पैमाने दो

ठहरो तेवरी को चढ़ाए हुए जाते हो किधर
दिल का सदक़ा तो अभी सर से उतर जाने दो

मनअ' क्यूँ करते हो इश्क़-ए-बुत-ए-शीरीं-लब से
क्या मज़े का है ये ग़म दोस्तो ग़म खाने दो

हम भी मंज़िल पे पहुँच जाएँगे मरते खपते
क़ाफ़िला यारों का जाता है अगर जाने दो

शम् ओ परवाना न महफ़िल में हों बाहम ज़िन्हार
शम्अ'-रू ने मुझे भेजे हैं ये परवाने दो

एक आलम नज़र आएगा गिरफ़्तार तुम्हें
अपने गेसू-ए-रसा ता-ब-कमर जाने दो

सख़्त-जानी से मैं आरी हूँ निहायत ऐ 'तल्ख़'
पड़ गए हैं तिरी शमशीर में दंदाने दो

हश्र में पेश-ए-ख़ुदा फ़ैसला इस का होगा
ज़िंदगी में मुझे उस गब्र को तरसाने दो

गर मोहब्बत है तो वो मुझ से फिरेगा न कभी
ग़म नहीं है मुझे ग़म्माज़ को भड़काने दो

जोश-ए-बारिश है अभी थमते हो क्या ऐ अश्को
दामन-ए-कोह-ओ-बयाबाँ को तो भर जाने दो

वाइ'ज़ों को न करे मनअ' नसीहत से कोई
मैं न समझूँगा किसी तरह से समझाने दो

रंज देता है जो वो पास न जाओ 'सय्याह'
मानो कहने को मिरे दूर करो जाने दो