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फिर जी उठे हैं जिस से वो इम्कान तुम नहीं | शाही शायरी
phir ji uThe hain jis se wo imkan tum nahin

ग़ज़ल

फिर जी उठे हैं जिस से वो इम्कान तुम नहीं

सलीम कौसर

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फिर जी उठे हैं जिस से वो इम्कान तुम नहीं
अब जो भी कर रहा है ये एहसान तुम नहीं

मुझ में बदल रहा है जो इक आलम-ए-ख़याल
उस लम्हा-ए-जुनूँ के निगहबान तुम नहीं

बुझते हुए चराग़ की लौ जिस ने तेज़ की
वो और ही हवा है मिरी जान तुम नहीं

फिर यूँ हुआ कि जैसे गिरह खुल गई कोई
मुश्किल तो बस यही थी कि आसान तुम नहीं

तुम ने सुनी नहीं है सदा-ए-शिकस्त-ए-दिल
हम झेलते रहे हैं ये नुक़सान तुम नहीं

तुम से तो बस निबाह की सूरत निकल पड़ी
जिस से हुए थे वादा ओ पैमान तुम नहीं

ख़ुश-फ़हमियों की बात अलग है मगर ये घर
जिस के लिए सजा है वो मेहमान तुम नहीं

ये आलम-ए-ज़ुहूर है हिजरत-ज़दा 'सलीम'
हम भी दुखी हैं सिर्फ़ परेशान तुम नहीं