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निगाह-ए-लुत्फ़ मत उठ ख़ूगर-ए-आलाम रहने दे | शाही शायरी
nigah-e-lutf mat uTh KHugar-e-alam rahne de

ग़ज़ल

निगाह-ए-लुत्फ़ मत उठ ख़ूगर-ए-आलाम रहने दे

असरार-उल-हक़ मजाज़

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निगाह-ए-लुत्फ़ मत उठ ख़ूगर-ए-आलाम रहने दे
हमें नाकाम रहना है हमें नाकाम रहने दे

किसी मासूम पर बे-दाद का इल्ज़ाम क्या मा'नी
ये वहशत-ख़ेज़ बातें इश्क़-ए-बद-अंजाम रहने दे

अभी रहने दे दिल में शौक़-ए-शोरीदा के हंगामे
अभी सर में मोहब्बत का जुनून-ए-ख़ाम रहने दे

अभी रहने दे कुछ दिन लुत्फ़-ए-नग़्मा मस्ती-ए-सहबा
अभी ये साज़ रहने दे अभी ये जाम रहने दे

कहाँ तक हुस्न भी आख़िर करे पास-ए-रवा-दारी
अगर ये इश्क़ ख़ुद ही फ़र्क़-ए-ख़ास-ओ-आम रहने दे

ब-ईं रिंदी 'मजाज़' इक शायर-ए-मज़दूर-ओ-दहक़ाँ है
अगर शहरों में वो बद-नाम है बद-नाम रहने दे