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नौहागरों में दीदा-ए-तर भी उसी का था | शाही शायरी
nauhagaron mein dida-e-tar bhi usi ka tha

ग़ज़ल

नौहागरों में दीदा-ए-तर भी उसी का था

अहमद फ़राज़

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नौहागरों में दीदा-ए-तर भी उसी का था
मुझ पर ये ज़ुल्म बार-ए-दिगर भी उसी का था

देखा मुझे तो तर्क-ए-तअल्लुक़ के बावजूद
वो मुस्कुरा दिया ये हुनर भी उसी का था

आँखें कुशाद-ओ-बस्त से बदनाम हो गईं
सूरज उसी का ख़्वाब-ए-सहर भी उसी का था

ख़ंजर-दर-आस्तीं ही मिला जब कभी मिला
वो तेग़ खींचता तो ये सर भी उसी का था

निश्तर चुभे हुए थे रग-ए-जाँ के आस-पास
वो चारागर था और मुझे डर भी उसी का था

महफ़िल में कल 'फ़राज़' ही शायद था लब-कुशा
मक़्तल में आज कासा-ए-सर भी उसी का था