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नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है | शाही शायरी
naqab-e-ruKH uThaya ja raha hai

ग़ज़ल

नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है

शकेब जलाली

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नक़ाब-ए-रुख़ उठाया जा रहा है
घटा में चाँद आया जा रहा है

ज़माने की निगाहों में समो कर
मुझे दिल से भुलाया जा रहा है

कहाँ का जाम जब याँ ज़ौक़-ए-मस्ती
निगाहों से पिलाया जा रहा है

अभी अरमान कुछ बाक़ी हैं दिल में
मुझे फिर आज़माया जा रहा है

पिला कर फिर शराब-ए-हुस्न-ओ-जल्वा
मुझे बे-ख़ुद बनाया जा रहा है

सलामत आप का जौर-ए-मुसलसल
मिरे दिल को दुखाया जा रहा है

'शकेब' अब वो तसव्वुर में न आएँ
कलेजा मुँह को आया जा रहा है