न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं
न पूछ जब वो गुज़रता है बे-नियाज़ी से
तो किस मलाल से हम नामा-बर को देखते हैं
तिरे जमाल से हट कर भी एक दुनिया है
ये सेर-चश्म मगर कब उधर को देखते हैं
अजब फ़ुसून-ए-ख़रीदार का असर है कि हम
उसी की आँख से अपने हुनर को देखते हैं
'फ़राज़' दर-ख़ुर-ए-सज्दा हर आस्ताना नहीं
हम अपने दिल के हवाले से दर को देखते हैं
ग़ज़ल
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
अहमद फ़राज़