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न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं | शाही शायरी
na manzilon ko na hum rahguzar ko dekhte hain

ग़ज़ल

न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं

अहमद फ़राज़

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न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं

न पूछ जब वो गुज़रता है बे-नियाज़ी से
तो किस मलाल से हम नामा-बर को देखते हैं

तिरे जमाल से हट कर भी एक दुनिया है
ये सेर-चश्म मगर कब उधर को देखते हैं

अजब फ़ुसून-ए-ख़रीदार का असर है कि हम
उसी की आँख से अपने हुनर को देखते हैं

'फ़राज़' दर-ख़ुर-ए-सज्दा हर आस्ताना नहीं
हम अपने दिल के हवाले से दर को देखते हैं