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मुझे ज़मान-ओ-मकाँ की हुदूद में न रख | शाही शायरी
mujhe zaman-o-makan ki hudud mein na rakh

ग़ज़ल

मुझे ज़मान-ओ-मकाँ की हुदूद में न रख

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

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मुझे ज़मान-ओ-मकाँ की हुदूद में न रख
सदा-ओ-सौत की अंधी क़ुयूद में न रख

मैं तेरे हर्फ़-ए-दुआ से भी मावरा हूँ मियाँ
मुझे तू अपने सलाम-ओ-दुरूद में न रख

कलीम-ए-वक़्त के दर को जबीं तरसती है
अमीर-ए-शहर के बेकल सुजूद में न रख

निज़ाम-ए-क़ैसर-ओ-किस्रा की मैं रवानी हूँ
वजूब-ए-ऐन हूँ साहब शुहूद में न रख

बिछा यक़ीं का मुसल्ला दरून-ए-हस्ती में
नियाज़-ओ-राज़ के क़िस्से नुमूद में न रख

पस-ए-वजूद जहाँ मेरी ख़ाक ही तो है
रुमूज़-ए-हस्ती-ए-दौराँ वरूद में न रख