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मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा | शाही शायरी
mujhe kahan mere andar se wo nikalega

ग़ज़ल

मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

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मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
पराई आग में कोई न हाथ डालेगा

वो आदमी भी किसी रोज़ अपनी ख़ल्वत में
मुझे न पा के कोई आईना निकालेगा

वो सब्ज़ डाल का पंछी मैं एक ख़ुश्क दरख़्त
ज़रा सी देर में वो अपना रास्ता लेगा

मैं वो चराग़ हूँ जिस की ज़िया न फैलेगी
मिरे मिज़ाज का सूरज मुझे छुपा लेगा

कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
मैं चूक जाऊँ तो वो उँगलियाँ जला लेगा

वो इक थका हुआ राही मैं एक बंद सराए
पहुँच भी जाएगा मुझ तक तो मुझ से क्या लेगा