EN اردو
ऐ दोस्त कोई मुझ सा रुस्वा न हुआ होगा | शाही शायरी
ai dost koi mujh sa ruswa na hua hoga

ग़ज़ल

ऐ दोस्त कोई मुझ सा रुस्वा न हुआ होगा

मीर तक़ी मीर

;

ऐ दोस्त कोई मुझ सा रुस्वा न हुआ होगा
दुश्मन के भी दुश्मन पर ऐसा न हुआ होगा

अब अश्क-ए-हिनाई से जो तर न करे मिज़्गाँ
वो तुझ कफ़-ए-रंगीं का मारा न हुआ होगा

टक गोर-ए-ग़रीबाँ की कर सैर कि दुनिया में
उन ज़ुल्म-रसीदों पर क्या क्या न हुआ होगा

बे-नाला-ओ-बे-ज़ारी बे-ख़स्तगी-ओ-ख़ारी
इमरोज़ कभी अपना फ़र्दा न हुआ होगा

है क़ाएदा कुल्ली ये कू-ए-मोहब्बत में
दिल ग़म जो हुआ होगा पैदा न हुआ होगा

इस कोहना-ख़राबे में आबादी न कर मुनइ'म
यक शहर नहीं याँ जो सहरा न हुआ होगा

आँखों से तिरी हम को है चश्म कि अब होवे
जो फ़ित्ना कि दुनिया में बरपा न हुआ होगा

जुज़ मर्तबा-ए-कल को हासिल करे है आख़िर
यक क़तरा न देखा जो दरिया न हुआ होगा

सद नश्तर-ए-मिज़्गाँ के लगने से न निकला ख़ूँ
आगे तुझे 'मीर' ऐसा सौदा न हुआ होगा