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अब ज़ोफ़ से ढहता है बेताबी शिताबी की | शाही शायरी
ab zoaf se Dhahta hai betabi shitabi ki

ग़ज़ल

अब ज़ोफ़ से ढहता है बेताबी शिताबी की

मीर तक़ी मीर

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अब ज़ोफ़ से ढहता है बेताबी शिताबी की
उस दिल के तड़पने ने क्या ख़ाना-ख़राबी की

उन दरस-गहों में वो आया न नज़र हम को
क्या नक़ल करूँ ख़ूबी उस चेहरा किताबी की

भुनते हैं दिल इक जानिब सकते हैं जिगर यकसू
है मज्लिस-ए-मुश्ताक़ाँ दुकान कबाबी की

तल्ख़ उस लब-ए-मय-गूँ से सब सुनते हैं किस ख़ातिर
तह-दार नहीं होती गुफ़्तार शराबी की

यक बू कुशी बुलबुल है मौजिब-ए-सद-मस्ती
पुर-ज़ोर है क्या दारू ग़ुंचे की गुलाबी की

अब सोज़-ए-मोहब्बत से सारे जो फफोले हैं
है शक्ल मिरे दिल की सब शीशा हबाबी की

नश-मुर्दा मिरे मुँह से याँ हर्फ़ नहीं निकला
जो बात कि मैं ने की सो 'मीर' हिसाबी की