अगर राह में उस की रखा है गाम
गए गुज़रे ख़िज़र अलैहिस-सलाम
दहन यार का देख चुप लग गई
सुख़न याँ हुआ ख़त्म हासिल-कलाम
मुझे देख मुँह पर परेशाँ की ज़ुल्फ़
ग़रज़ ये कि जा तू हुई अब तो शाम
सर-ए-शाम से रहती हैं काहिशें
हमें शौक़ उस माह का है तमाम
क़यामत ही याँ चश्म-ओ-दिल से रही
चले बस तो वाँ जा के करिए क़याम
न देखे जहाँ कोई आँखों की और
न लेवे कोई जिस जगह दिल का नाम
जहाँ 'मीर' ज़ेर-ओ-ज़बर हो गया
ख़िरामाँ हुआ था वो महशर-ख़िराम
ग़ज़ल
अगर राह में उस की रखा है गाम
मीर तक़ी मीर