किस तरह मिलें कोई बहाना नहीं मिलता
हम जा नहीं सकते उन्हें आना नहीं मिलता
फिरते हैं वहाँ आप भटकती है यहाँ रूह
अब गोर में भी हम को ठिकाना नहीं मिलता
बदनाम किया है तन-ए-अनवर की सफ़ा ने
दिल में भी उसे राज़ छुपाना नहीं मिलता
दौलत नहीं काम आती जो तक़दीर बुरी हो
क़ारून को भी अपना ख़ज़ाना नहीं मिलता
आँखें वो दिखाते हैं निकल जाए अगर बात
बोसा तो कहाँ होंट हिलाना नहीं मिलता
ताक़त वो कहाँ जाएँ तसव्वुर में जो ऐ 'बर्क़'
बरसों से हमें होश में आना नहीं मिलता
ग़ज़ल
किस तरह मिलें कोई बहाना नहीं मिलता
मिर्ज़ा रज़ा बर्क़