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जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई | शाही शायरी
jab zindagi sukun se mahrum ho gai

ग़ज़ल

जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई

असद भोपाली

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जब ज़िंदगी सुकून से महरूम हो गई
उन की निगाह और भी मासूम हो गई

हालात ने किसी से जुदा कर दिया मुझे
अब ज़िंदगी से ज़िंदगी महरूम हो गई

क़ल्ब ओ ज़मीर बे-हिस ओ बे-जान हो गए
दुनिया ख़ुलूस ओ दर्द से महरूम हो गई

उन की नज़र के कोई इशारे न पा सका
मेरे जुनूँ की चारों तरफ़ धूम हो गई

कुछ इस तरह से वक़्त ने लीं करवटें 'असद'
हँसती हुई निगाह भी मग़्मूम हो गई