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हरीम-ए-काबा बना दी वो सर-ज़मीं मैं ने | शाही शायरी
harim-kaba bana di wo sar-zamin maine

ग़ज़ल

हरीम-ए-काबा बना दी वो सर-ज़मीं मैं ने

अख़्तर अली अख़्तर

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हरीम-ए-काबा बना दी वो सर-ज़मीं मैं ने
तिरे ख़याल में रख दी जहाँ जबीं मैं ने

मुझी को पर्दा-ए-हस्ती में दे रहा है फ़रेब
वो हुस्न जिस को किया जल्वा-आफ़रीं मैं ने

चटक में ग़ुंचे की वो सौत-ए-जाँ-फ़ज़ा तो नहीं
सुनी है पहले भी आवाज़ ये कहीं मैं ने

रहीन-ए-मंज़िल-ए-वहम-ओ-गुमाँ रहा 'अख़्तर'
इसी में ढूँढ लिया जादा-ए-यक़ीं मैं ने