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हर नई रुत में नया होता है मंज़र मेरा | शाही शायरी
har nai rut mein naya hota hai manzar mera

ग़ज़ल

हर नई रुत में नया होता है मंज़र मेरा

बशर नवाज़

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हर नई रुत में नया होता है मंज़र मेरा
एक पैकर में कहाँ क़ैद है पैकर मेरा

मैं कहाँ जाऊँ कि पहचान सके कोई मुझे
अजनबी मान के चलता है मुझे घर मेरा

जैसे दुश्मन ही नहीं कोई मिरा अपने सिवा
लौट आता है मिरी सम्त ही पत्थर मेरा

जो भी आता है वही दिल में समा जाता है
कितने दरियाओं का प्यासा है समुंदर मेरा

तू वो महताब तकें राह उजाले तेरी
मैं वो सूरज कि अंधेरा है मुक़द्दर मेरा