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हम-नफ़सो उजड़ गईं मेहर-ओ-वफ़ा की बस्तियाँ | शाही शायरी
ham-nafaso ujaD gain mehr-o-wafa ki bastiyan

ग़ज़ल

हम-नफ़सो उजड़ गईं मेहर-ओ-वफ़ा की बस्तियाँ

अब्दुल मजीद सालिक

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हम-नफ़सो उजड़ गईं मेहर-ओ-वफ़ा की बस्तियाँ
पूछ रहे हैं अहल-ए-मेहर-ओ-वफ़ा को क्या हुआ

इश्क़ है बे-गुज़ार क्यूँ हुस्न है बे-नियाज़ क्यूँ
मेरी वफ़ा कहाँ गई उन की जफ़ा को क्या हुआ

ये तो बजा कि अब वो कैफ़ जाम-ए-शराब में नहीं
साक़ी-ए-मय के ग़म्ज़ा-ए-होश-रुबा को क्या हुआ

अब नहीं जन्नत मशाम-ए-कूचा-ए-यार की शमीम
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ क्या हुई बाद-ए-सबा को क्या हुआ

थम गया दौरा-ए-हयात रुक गई नब्ज़-ए-काएनात
इश्क़-ओ-जुनूँ की गर्मी-ए-हमहमा-ज़ा को क्या हुआ

दश्त-ए-जुनूँ में हो गई मंज़िल-ए-यार बे-सुराग़
क़ाफ़िला किस तरफ़ गया बाँग-ए-दरा को क्या हुआ

नाला-ए-शब है ना-रसा आह-ए-सहर है बे-असर
मेरा ख़ुदा कहाँ गया मेरे ख़ुदा को क्या हुआ