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गुज़रो न इस तरह कि तमाशा नहीं हूँ मैं | शाही शायरी
guzro na is tarah ki tamasha nahin hun main

ग़ज़ल

गुज़रो न इस तरह कि तमाशा नहीं हूँ मैं

उबैदुल्लाह अलीम

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गुज़रो न इस तरह कि तमाशा नहीं हूँ मैं
समझो कि अब हूँ और दोबारा नहीं हूँ मैं

इक तब्अ' रंग रंग थी सो नज़्र-ए-गुल हुई
अब ये कि अपने साथ भी रहता नहीं हूँ मैं

तुम ने भी मेरे साथ उठाए हैं दुख बहुत
ख़ुश हूँ कि राह-ए-शौक़ में तन्हा नहीं हूँ मैं

पीछे न भाग वक़्त की ऐ ना-शनास धूप
सायों के दरमियान हूँ साया नहीं हूँ मैं

जो कुछ भी हूँ मैं अपनी ही सूरत में हूँ 'अलीम'
'ग़ालिब' नहीं हूँ 'मीर'-ओ-'यगाना' नहीं हूँ मैं