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देखी जो ज़ुल्फ़-ए-यार तबीअत सँभल गई | शाही शायरी
dekhi jo zulf-e-yar tabiat sambhal gai

ग़ज़ल

देखी जो ज़ुल्फ़-ए-यार तबीअत सँभल गई

मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

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देखी जो ज़ुल्फ़-ए-यार तबीअत सँभल गई
आई हुई बला मिरे सर पर से टल गई

पूछा अगर किसी ने मिरा आ के हाल-ए-दिल
बे-इख़्तियार आह लबों से निकल गई

उर्यां हरारत-ए-तप-ए-फ़ुर्क़त से मैं रहा
हर बार मेरे जिस्म की पोशाक जल गई

कैफ़ियत-ए-बहार जो याद आई ज़ेर-ए-ख़ाक
दाग़-ए-जुनूँ से अपनी तबीअत बहल गई

उस के दहान-ए-तंग की तंगी न पूछिए
एजाज़ समझे बात जो मुँह से निकल गई

फ़ुर्क़त में हम-बग़ल जो हुआ 'बर्क़' गोर से
हसरत विसाल-ए-यार की दिल से निकल गई