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अश्क दामन में भरे ख़्वाब कमर पर रक्खा | शाही शायरी
ashk daman mein bhare KHwab kamar par rakkha

ग़ज़ल

अश्क दामन में भरे ख़्वाब कमर पर रक्खा

अहमद मुश्ताक़

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अश्क दामन में भरे ख़्वाब कमर पर रक्खा
फिर क़दम हम ने तिरी राहगुज़र पर रक्खा

हम ने हाथ से थामा शब-ए-ग़म का आँचल
और इक हाथ को दामान-ए-सहर पर रक्खा

चलते चलते जो थके पाँव तो हम बैठ गए
नींद गठरी पे धरी ख़्वाब शजर पर रक्खा

जाने किस दम निकल आए तिरे रुख़्सार की धूप
मुद्दतों ध्यान तिरे साया-ए-दर पर रक्खा

जाते मौसम ने पलट कर भी न देखा 'मुश्ताक़'
रह गया साग़र-ए-गुल सब्ज़ा-ए-तर पर रक्खा