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अपने पहले मकान तक हो आऊँ | शाही शायरी
apne pahle makan tak ho aaun

ग़ज़ल

अपने पहले मकान तक हो आऊँ

अख़्तर उस्मान

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अपने पहले मकान तक हो आऊँ
मैं ज़रा आसमान तक हो आऊँ

कोई पैकर पुकारता है मुझे
सामने की चटान तक हो आऊँ

झड़ता जाता है जिस्म रोज़-ब-रोज़
कूज़ा-गर की दुकान तक हो आऊँ

सेहर-ए-तशकीक! अब रिहाई दे
मैं कोई दम गुमान तक हो आऊँ

वक़्त अब दस्तरस में है 'अख़्तर'
अब तो मैं जिस जहान तक हो आऊँ