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आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम | शाही शायरी
aasmanon se zamin ki taraf aate hue hum

ग़ज़ल

आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम

नोमान शौक़

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आसमानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
एक मजमे के लिए शेर सुनाते हुए हम

किस गुमाँ में हैं तिरे शहर के भटके हुए लोग
देखने वाले पलट कर नहीं जाते हुए हम

कैसी जन्नत के तलबगार हैं तू जानता है
तेरी लिक्खी हुई दुनिया को मिटाते हुए हम

रेल देखी है कभी सीने पे चलने वाली
याद तो होंगे तुझे हाथ हिलाते हुए हम

तोड़ डालेंगे किसी दिन घने जंगल का ग़ुरूर
लकड़ियाँ चुनते हुए आग जलाते हुए हम

तुम तो सर्दी की हसीं धूप का चेहरा हो जिसे
देखते रहते हैं दीवार से जाते हुए हम

ख़ुद को याद आते ही बे-साख़्ता हँस पड़ते हैं
कभी ख़त तो कभी तस्वीर जलाते हुए हम