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आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर | शाही शायरी
aaghosh-e-sitam mein hi chhupa le koi aa kar

ग़ज़ल

आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर

अदीम हाशमी

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आग़ोश-ए-सितम में ही छुपा ले कोई आ कर
तन्हा तो तड़पने से बचा ले कोई आ कर

सहरा में उगा हूँ कि मिरी छाँव कोई पाए
हिलता हूँ कि पत्तों की हवा ले कोई आ कर

बिकता तो नहीं हूँ न मिरे दाम बहुत हैं
रस्ते में पड़ा हूँ कि उठा ले कोई आ कर

कश्ती हूँ मुझे कोई किनारे से तो खोले
तूफ़ाँ के ही कर जाए हवाले कोई आ कर

जब खींच लिया है मुझे मैदान-ए-सितम में
दिल खोल के हसरत भी निकाले कोई आ कर

दो चार ख़राशों से हो तस्कीन-ए-जफ़ा क्या
शीशा हूँ तो पत्थर पे उछाले कोई आ कर

मेरे किसी एहसान का बदला न चुकाए
अपनी ही वफ़ाओं का सिला ले कोई आ कर