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जब्र शायरी | शाही शायरी

जब्र

3 शेर

ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं
हाए इस क़ैद को ज़ंजीर भी दरकार नहीं

फ़ानी बदायुनी




मैं हूँ भी और नहीं भी अजीब बात है ये
ये कैसा जब्र है मैं जिस के इख़्तियार में हूँ

मुनीर नियाज़ी




ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई

मुज़फ़्फ़र रज़्मी