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सालिम सलीम शायरी | शाही शायरी

सालिम सलीम शेर

22 शेर

जुज़ हमारे कौन आख़िर देखता इस काम को
रूह के अंदर कोई कार-ए-बदन होता हुआ

सालिम सलीम




आ रहा होगा वो दामन से हवा बाँधे हुए
आज ख़ुशबू को परेशान किया जाएगा

सालिम सलीम




इक बर्फ़ सी जमी रहे दीवार-ओ-बाम पर
इक आग मेरे कमरे के अंदर लगी रहे

सालिम सलीम




हिज्र के दिन तो हुए ख़त्म बड़ी धूम के साथ
वस्ल की रात है क्यूँ मर्सिया-ख़्वानी करें हम

सालिम सलीम




चटख़ के टूट गई है तो बन गई आवाज़
जो मेरे सीने में इक रोज़ ख़ामुशी हुई थी

सालिम सलीम




चराग़-ए-इश्क़ बदन से लगा था कुछ ऐसा
मैं बुझ के रह गया उस को हवा बनाने में

सालिम सलीम




बुझा रखे हैं ये किस ने सभी चराग़-ए-हवस
ज़रा सा झाँक के देखें कहीं हवा ही न हो

सालिम सलीम




भरे बाज़ार में बैठा हूँ लिए जिंस-ए-वजूद
शर्त ये है कि मिरी ख़ाक की क़ीमत दी जाए

सालिम सलीम




अपने जैसी कोई तस्वीर बनानी थी मुझे
मिरे अंदर से सभी रंग तुम्हारे निकले

सालिम सलीम