घर वाले मुझे घर पर देख के ख़ुश हैं और वो क्या जानें
मैं ने अपना घर अपने मस्कन से अलग कर रक्खा है
अब्दुल अहद साज़
अब आ के क़लम के पहलू में सो जाती हैं बे-कैफ़ी से
मिसरों की शोख़ हसीनाएँ सौ बार जो रूठती मनती थीं
अब्दुल अहद साज़
बाम-ओ-दर की रौशनी फिर क्यूँ बुलाती है मुझे
मैं निकल आया था घर से इक शब-ए-तारीक में
अब्दुल अहद साज़
बचपन में हम ही थे या था और कोई
वहशत सी होने लगती है यादों से
अब्दुल अहद साज़
बयाज़ पर सँभल सके न तजरबे
फिसल पड़े बयान बन के रह गए
अब्दुल अहद साज़
बोल थे दिवानों के जिन से होश वालों ने
सोच के धुँदलकों में अपना रास्ता पाया
अब्दुल अहद साज़
बुरा हो आईने तिरा मैं कौन हूँ न खुल सका
मुझी को पेश कर दिया गया मिरी मिसाल में
अब्दुल अहद साज़
दाद-ओ-तहसीन की बोली नहीं तफ़्हीम का नक़्द
शर्त कुछ तो मिरे बिकने की मुनासिब ठहरे
अब्दुल अहद साज़
दोस्त अहबाब से लेने न सहारे जाना
दिल जो घबराए समुंदर के किनारे जाना
अब्दुल अहद साज़