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ज़िंदा रहने का ये एहसास | शाही शायरी
zinda rahne ka ye ehsas

नज़्म

ज़िंदा रहने का ये एहसास

शहरयार

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रेत मुट्ठी में कभी ठहरी है
प्यास से उस को इलाक़ा क्या है

उम्र का कितना बड़ा हिस्सा गँवा बैठा मैं
जानते बूझते किरदार ड्रामे का बना

और इस रोल को सब कहते हैं
होशियारी से निभाया मैं ने

हँसने के जितने मक़ाम आए हँसा
बस मुझे रोने की साअत पे ख़जिल होना पड़ा

जाने क्यूँ रोने के हर लम्हे को
टाल देता हूँ किसी अगली घड़ी पर

दिल में ख़ौफ़ ओ नफ़रत को सजा लेता हूँ
मुझ को ये दुनिया भली लगती है

भीड़ में अजनबी लगने में मज़ा आता है
आश्ना चेहरों के बदले हुए तेवर मुझ को

हाल से माज़ी में ले जाते हैं
कुहनियाँ ज़ख़्मी हैं और घुटनों पर

कुछ ख़राशों के निशाँ
सोंधी मिट्टी की महक खींचे लिए जाती है

तितलियाँ फूल हवा चाँदनी कंकर पत्थर
सब मिरे साथ में हैं

साँस बे-ख़ौफ़ी से लेता हूँ मैं