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तस्वीर ओ तसव्वुर | शाही शायरी
taswir o tasawwur

नज़्म

तस्वीर ओ तसव्वुर

जिगर मुरादाबादी

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वो कब के आए भी और गए भी नज़र में अब तक समा रहे हैं
ये चल रहे हैं, वो फिर रहे हैं, ये आ रहे हैं वो जा रहे हैं

वही क़यामत है कद्द-ए-बाला वही है सूरत, वही सरापा
लबों को जुम्बिश, निगह को लर्ज़िश, खड़े हैं और मुस्कुरा रहे हैं

वही लताफ़त, वही नज़ाकत, वही तबस्सुम, वही तरन्नुम
मैं नक़्श-ए-हिरमाँ बना हुआ था वो नक़्श-ए-हैरत बना रहे हैं

ख़िराम रंगीं, निज़ाम रंगीं, कलाम रंगीं, पयाम रंगीं
क़दम क़दम पर, रविश रविश पर नए नए गुल खिला रहे हैं

शबाब रंगीं, जमाल रंगीं, वो सर से पा तक तमाम रंगीं
तमाम रंगीं बने हुए हैं, तमाम रंगीं बना रहे हैं

तमाम रानाइयों के मज़हर, तमाम रंगीनियों के मंज़र
सँभल सँभल कर सिमट सिमट कर सब एक मरकज़ पर आ रहे हैं

बहार-ए-रंग-ओ-शबाब ही क्या सितारा ओ माहताब ही क्या
तमाम हस्ती झुकी हुई है, जिधर वो नज़रें झुका रहे हैं

तुयूर सरशार-ए-साग़र-ए-मुल हलाक-ए-तनवीर-ए-लाला-ओ-गुल
सब अपनी अपनी धुनों में मिल कर अजब अजब गीत गा रहे हैं

शराब आँखों से ढल रही है, नज़र से मस्ती उबल रही है
छलक रही है उछल रही है, पिए हुए हैं पिला रहे हैं

ख़ुद अपने नश्शे में झूमते हैं, वो अपना मुँह आप चूमते हैं
ख़राब-ए-मस्ती बने हुए हैं, हलाक-ए-मस्ती बना रहे हैं

फ़ज़ा से नश्शा बरस रहा है, दिमाग़ फूलों में बस रहा है
वो कौन है जो तरस रहा है? सभी को मय-कश पिला रहे हैं

ज़मीन नश्शा, ज़मान नश्शा, जहान नश्शा, मकान नश्शा
मकान क्या? ला-मकान नश्शा, डुबो रहे हैं पिला रहे हैं

वो रू-ए-रंगीं ओ माैजा-ए-यम, कि जैसे दामान-ए-गुल पे शबनम
ये गरमी-ए-हुस्न का है आलम, अरक़ अरक़ में नहा रहे हैं

ये मस्त बुलबुल बहक रहे हैं, क़रीब-ए-आरिज़ चहक रहे है
गुलों की छाती धड़क रही है, वो दस्त-ए-रंगीं बढ़ा रहे हैं

ये मौज-ओ-दरिया, ये रेग-ओ-सहरा ये ग़ुंचा-ओ-गुल, ये माह-ओ-अंजुम
ज़रा जो वो मुस्कुरा दिए हैं वो सब के सब मुस्कुरा रहे हैं

फ़ज़ा ये नग़्मों से भर गई है कि मौज-ए-दरिया ठहर गई है
सुकूत-ए-नग़्मा बना हुआ है, वो जैसे कुछ गुनगुना रहे हैं

अब आगे जो कुछ भी हो मुक़द्दर, रहेगा लेकिन ये नक़्श दिल पर
हम उन का दामन पकड़ रहे हैं, वो अपना दामन छुड़ा रहे हैं

ये अश्क जो बह रहे हैं पैहम, अगरचे सब हैं ये हासिल-ए-ग़म
मगर ये मालूम हो रहा है, कि ये भी कुछ मुस्कुरा रहे हैं

ज़रा जो दम भर को आँख झपकी, ये देखता हूँ नई तजल्ली
तिलिस्म सूरत मिटा रहे हैं, जमाल मअनी बना रहे हैं

ख़ुशी से लबरेज़ शश-जिहत है, ज़बान पर शोर-ए-तहनियत है
ये वक़्त वो है 'जिगर' के दिल को वो अपने दिल से मिला रहे हैं