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शम-ए-रह-गुज़र | शाही शायरी
sham-e-rah-guzar

नज़्म

शम-ए-रह-गुज़र

असरार-उल-हक़ मजाज़

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ज़ीस्त बे-इख़्तियार गुज़री है
जूँ नसीम-ए-बहार गुज़री है

दिल में बरपा क़यामतें करती
निगह-ए-शर्मसार गुज़री है

साग़र ओ साज़ दूर ही रखिए
वर्ना यूँ भी बहार गुज़री है

ज़मज़मा-संज ओ ज़रफ़िशाँ निकहत
फिर सबा पर सवार गुज़री है

क्या गुज़रगाह है मोहब्बत की
ख़ुद-ब-ख़ुद बार बार गुज़री है

इक दुर-ए-शहवार-ए-सद-बुसताँ
फिर लब-ए-जूएबार गुज़री है

हाए शीरीनी-ए-लब-ए-लालीं
मुस्कुराती बहार गुज़री है

वाए तूफ़ान-ए-सीना-ए-सीमीं
दुख़्तर-ए-कोहसार गुज़री है

ज़िंदगी की जमील राहों से
ख़ुद अजल शर्मसार गुज़री है