EN اردو
शायद | शाही शायरी
shayad

नज़्म

शायद

जौन एलिया

;

मैं शायद तुम को यकसर भूलने वाला हूँ
शायद जान-ए-जाँ शायद

कि अब तुम मुझ को पहले से ज़ियादा याद आती हो
है दिल ग़मगीं बहुत ग़मगीं

कि अब तुम याद दिलदाराना आती हो
शमीम-ए-दूर-माँदा हो

बहुत रंजीदा हो मुझ से
मगर फिर भी

मशाम-ए-जाँ में मेरे आश्ती-मंदाना आती हो
जुदाई में बला का इल्तिफ़ात-ए-मेहरमाना है

क़यामत की ख़बर-गीरी है
बेहद नाज़-बरदारी का आलम है

तुम्हारे रंग मुझ में और गहरे होते जाते हैं
मैं डरता हूँ

मिरे एहसास के इस ख़्वाब का अंजाम क्या होगा
ये मेरे अंदरून-ए-ज़ात के ताराज-गर

जज़्बों के बैरी वक़्त की साज़िश न हो कोई
तुम्हारे इस तरह हर लम्हा याद आने से

दिल सहमा हुआ सा है
तो फिर तुम कम ही याद आओ

मता-ए-दिल मता-ए-जाँ तो फिर तुम कम ही याद आओ
बहुत कुछ बह गया है सैल-ए-माह-ओ-साल में अब तक

सभी कुछ तो न बह जाए
कि मेरे पास रह भी क्या गया है

कुछ तो रह जाए