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पत्ते का ग़म | शाही शायरी
patte ka gham

नज़्म

पत्ते का ग़म

आदिल रज़ा मंसूरी

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इस के हरे रहने
सूखने

झड़ने से
फ़र्क़ कुछ पड़ता नहीं है

पेड़ को
क्या इसी ग़म में

घुल जाता है
पत्ता