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नर्गिस-ए-मस्ताना | शाही शायरी
nargis-e-mastana

नज़्म

नर्गिस-ए-मस्ताना

जिगर मुरादाबादी

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अपना ही सा ऐ नर्गिस-ए-मस्ताना बना दे
मैं जब तुझे जानूँ मुझे दीवाना बना दे

हर क़ैद से हर रस्म से बेगाना बना दे
दीवाना बना दे मुझे दीवाना बना दे

इक बर्क़-ए-अदा ख़िर्मन-ए-हस्ती पे गिरा कर
नज़रों को मिरी तूर का अफ़्साना बना दे

हर दिल है तिरी बज़्म में लबरेज़-ए-मय-ए-इश्क़
इक और भी पैमाना से पैमाना बना दे

तू साक़ी-ए-मय-ख़ाना भी तू नश्शा ओ मय भी
मैं तिश्ना-ए-हस्ती मुझे मस्ताना बना दे

अल्लाह ने तुझ को मय ओ मय-ख़ाना बनाया
तू सारी फ़ज़ा को मय ओ मय-ख़ाना बना दे

तू साक़ी-ए-मय-ख़ाना है मैं रिंद-ए-बला-नोश
मेरे लिए मय-ख़ाने को पैमाना बना दे

या दीदा-ओ-दिल में मिरे तू आप समा जा
या फिर दिल-ओ-दीदा ही को वीराना बना दे

क़तरे में वो दरिया है जो आलम को डुबो दे
ज़र्रे में वो सहरा है कि दीवाना बना दे

लेकिन मुझे हर क़ैद-ए-तअय्युन से बचा कर
जो चाहे वो ऐ नर्गिस-ए-मस्ताना बना दे

आलम तो है दीवाना जिगर! हुस्न की ख़ातिर
तू अपने लिए हुस्न को दीवाना बना दे

कब तक निगह-ए-यार न होगी मुतबस्सिम
तू अपना हर अंदाज़ हरीफ़ाना बना दे

मुंकिर तू न बन हुस्न के एजाज़-ए-नज़र का
कहने के लिए अपने को बेगाना बना दे

जब तक करम-ए-ख़ास का दरिया न उमँड आए
तू और भी हाल अपना सफ़ीहाना बना दे

बुत-ख़ाने आ निकले तो काबा की बिना डाल
काबे में पहुँच जाए तो बुत-ख़ाना बना दे

जो मौज उठे दिल से तिरे जोश-ए-तलब में
सर रख के वहीं सज्दा-ए-शुकराना बना दे

जब माइल-ए-अल्ताफ़ नज़र आए वो ख़ुद-बीं
तू हर निगह-ए-शौक़ को अफ़्साना बना दे

कौनैन भी मिल जाए तो दामन को न फैला
कौनैन को भूला हुआ अफ़्साना बना दे

फिर अर्ज़ कर इस तरह 'जिगर' शौक़ ओ अदब से
बेबाक अगर जुरअत-ए-रिंदाना बना दे

तुझ को निगह-ए-यार! क़सम मेरे जुनूँ की
नासेह को भी मेरा ही सा दीवाना बना दे

मैं हूँ तिरे क़दमों में मुझे कुछ नहीं कहना
अब जो भी तिरा लुत्फ़-ए-करीमाना बना दे