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ख़िज़ाँ फिर आ गई क्या | शाही शायरी
KHizan phir aa gai kya

नज़्म

ख़िज़ाँ फिर आ गई क्या

पीरज़ादा क़ासीम

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ख़िज़ाँ की इब्तिदा से इंतिहा तक
सारा मौसम ही ख़िज़ाँ है

गुज़रते जा रहे हैं जितने लम्हे सब ख़िज़ाँ हैं
मगर वो नीम-जाँ पत्ता

जिसे पहली ही पुर्वाई के पहले सर्द झोंके ने
समेटा है

नए इक टूटते पत्ते से सरगोशी में कहता है
ख़िज़ाँ तो जा चुकी थी