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इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर | शाही शायरी
iltija-e-musafir

नज़्म

इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर

अल्लामा इक़बाल

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फ़रिश्ते पढ़ते हैं जिस को वो नाम है तेरा
बड़ी जनाब तिरी फ़ैज़ आम है तेरा

सितारे इश्क़ के तेरी कशिश से हैं क़ाएम
निज़ाम-ए-मेहर की सूरत निज़ाम है तेरा

तिरी लहद की ज़ियारत है ज़िंदगी दिल की
मसीह ओ ख़िज़्र से ऊँचा मक़ाम है तेरा

निहाँ है तेरी मोहब्बत में रंग-ए-महबूबी
बड़ी है शान बड़ा एहतिराम है तेरा

अगर सियाह दिलम दाग़-ए-लाला-ज़ार-ए-तवाम
दिगर कुशादा जबीनम गुल-ए-बहार-ए-तवाम

चमन को छोड़ के निकला हूँ मिस्ल-ए-निकहत-ए-गुल
हुआ है सब्र का मंज़ूर इम्तिहाँ मुझ को

चली है ले के वतन के निगार-ख़ाने से
शराब-ए-इल्म की लज़्ज़त कशाँ कशाँ मुझ को

नज़र है अब्र-ए-करम पर दरख़्त-ए-सहरा हूँ
किया ख़ुदा ने न मोहताज-ए-बाग़बाँ मुझ को

फ़लक-नशीं सिफ़त-ए-मेहर हूँ ज़माने में
तिरी दुआ से अता हो वो नर्दबाँ मुझ को

मक़ाम हम-सफ़रों से हो इस क़दर आगे
कि समझे मंज़िल-ए-मक़्सूद कारवाँ मुझ को

मिरी ज़बान-ए-क़लम से किसी का दिल न दुखे
किसी से शिकवा न हो ज़ेर-ए-आसमाँ मुझ को

दिलों को चाक करे मिस्ल-ए-शाना जिस का असर
तिरी जनाब से ऐसी मिले फ़ुग़ाँ मुझ को

बनाया था जिसे चुन चुन के ख़ार ओ ख़स मैं ने
चमन में फिर नज़र आए वो आशियाँ मुझ को

फिर आ रखूँ क़दम-ए-मादर-ओ-पिदर पे जबीं
किया जिन्हों ने मोहब्बत का राज़-दाँ मुझ को

वो शम-ए-बारगह-ए-ख़ानदान-ए-मुर्तज़वी
रहेगा मिस्ल-ए-हरम जिस का आस्ताँ मुझ को

नफ़स से जिस के खिली मेरी आरज़ू की कली
बनाया जिस की मुरव्वत ने नुक्ता-दाँ मुझ को

दुआ ये कर कि ख़ुदावंद-ए-आसमान-ओ-ज़मीं
करे फिर उस की ज़ियारत से शादमाँ मुझ को

वो मेरा यूसुफ़-ए-सानी वो शम-ए-महफ़िल-ए-इश्क़
हुई है जिस की उख़ुव्वत क़रार-ए-जाँ मुझ को

जला के जिस की मोहब्बत ने दफ़्तर-ए-मन-ओ-तू
हवा-ए-ऐश में पाला किया जवाँ मुझ को

रियाज़-ए-दहर में मानिंद-ए-गुल रहे ख़ंदाँ
कि है अज़ीज़-तर अज़-जाँ वो जान-ए-जाँ मुझ को

शगुफ़्ता हो के कली दिल की फूल हो जाए
ये इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर क़ुबूल हो जाए