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गोरिस्तान-ए-शाही | शाही शायरी
goristan-e-shahi

नज़्म

गोरिस्तान-ए-शाही

अल्लामा इक़बाल

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आसमाँ बादल का पहने ख़िरक़ा-ए-देरीना है
कुछ मुकद्दर सा जबीन-ए-माह का आईना है

चाँदनी फीकी है इस नज़्ज़ारा-ए-ख़ामोश में
सुब्ह-ए-सादिक़ सो रही है रात की आग़ोश में

किस क़दर अश्जार की हैरत-फ़ज़ा है ख़ामुशी
बरबत-ए-क़ुदरत की धीमी सी नवा है ख़ामुशी

बातिन-ए-हर-ज़र्रा-ए-आलम सरापा दर्द है
और ख़ामोशी लब-ए-हस्ती पे आह-ए-सर्द है

आह जौलाँ-गाह-ए-आलम-गीर यानी वो हिसार
दोश पर अपने उठाए सैकड़ों सदियों का बार

ज़िंदगी से था कभी मामूर अब सुनसान है
ये ख़मोशी उस के हंगामों का गोरिस्तान है

अपने सुक्कान-ए-कुहन की ख़ाक का दिल-दादा है
कोह के सर पर मिसाल-ए-पासबाँ इस्तादा है

अब्र के रौज़न से वो बाला-ए-बाम-ए-आसमाँ
नाज़िर-ए-आलम है नज्म-ए-सब्ज़-फ़ाम-ए-आसमाँ

ख़ाक-बाज़ी वुसअत-ए-दुनिया का है मंज़र उसे
दास्ताँ नाकामी-ए-इंसाँ की है अज़बर उसे

है अज़ल से ये मुसाफ़िर सू-ए-मंज़िल जा रहा
आसमाँ से इंक़िलाबों का तमाशा देखता

गो सुकूँ मुमकिन नहीं आलम में अख़्तर के लिए
फ़ातिहा-ख़्वानी को ये ठहरा है दम भर के लिए

रंग-ओ-आब-ए-ज़िंदगी से गुल-ब-दामन है ज़मीं
सैकड़ों ख़ूँ-गश्ता तहज़ीबों का मदफ़न है ज़मीं

ख़्वाब-गह शाहों की है ये मंज़िल-ए-हसरत-फ़ज़ा
दीदा-ए-इबरत ख़िराज-ए-अश्क-ए-गुल-गूँ कर अदा

है तो गोरिस्ताँ मगर ये ख़ाक-ए-गर्दूं-पाया है
आह इक बरगश्ता क़िस्मत क़ौम का सरमाया है

मक़बरों की शान हैरत-आफ़रीं है इस क़दर
जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ से है चश्म-ए-तमाशा को हज़र

कैफ़ियत ऐसी है नाकामी की इस तस्वीर में
जो उतर सकती नहीं आईना-ए-तहरीर में

सोते हैं ख़ामोश आबादी के हंगामों से दूर
मुज़्तरिब रखती थी जिन को आरज़ू-ए-ना-सुबूर

क़ब्र की ज़ुल्मत में है इन आफ़्ताबों की चमक
जिन के दरवाज़ों पे रहता है जबीं-गुस्तर फ़लक

क्या यही है इन शहंशाहों की अज़्मत का मआल
जिन की तदबीर-ए-जहाँबानी से डरता था ज़वाल

रोब-ए-फ़ग़्फ़ूरी हो दुनिया में कि शान-ए-क़ैसरी
टल नहीं सकती ग़नीम-ए-मौत की यूरिश कभी

बादशाहों की भी किश्त-ए-उम्र का हासिल है गोर
जादा-ए-अज़्मत की गोया आख़िरी मंज़िल है गोर

शोरिश-ए-बज़्म-ए-तरब क्या ऊद की तक़रीर क्या
दर्दमंदान-ए-जहाँ का नाला-ए-शब-गीर क्या

अरसा-ए-पैकार में हंगामा-ए-शमशीर क्या
ख़ून को गरमाने वाला नारा-ए-तकबीर क्या

अब कोई आवाज़ सोतों को जगा सकती नहीं
सीना-ए-वीराँ में जान-ए-रफ़्ता आ सकती नहीं

रूह-ए-मुश्त-ए-ख़ाक में ज़हमत-कश-ए-बेदाद है
कूचा गर्द-ए-नय हुआ जिस दम नफ़स फ़रियाद है

ज़िंदगी इंसाँ की है मानिंद-ए-मुर्ग़-ए-ख़ुश-नवा
शाख़ पर बैठा कोई दम चहचहाया उड़ गया

आह क्या आए रियाज़-ए-दहर में हम क्या गए
ज़िंदगी की शाख़ से फूटे खिले मुरझा गए

मौत हर शाह ओ गदा के ख़्वाब की ताबीर है
इस सितमगर का सितम इंसाफ़ की तस्वीर है

सिलसिला हस्ती का है इक बहर-ए-ना-पैदा-कनार
और इस दरिया-ए-बे-पायाँ की मौजें हैं मज़ार

ऐ हवस ख़ूँ रो कि है ये ज़िंदगी बे-ए'तिबार
ये शरारे का तबस्सुम ये ख़स-ए-आतिश-सवार

चाँद जो सूरत-गर-ए-हस्ती का इक एजाज़ है
पहने सीमाबी क़बा महव-ए-ख़िराम-ए-नाज़ है

चर्ख़-ए-बे-अंजुम की दहशतनाक वुसअत में मगर
बेकसी इस की कोई देखे ज़रा वक़्त-ए-सहर

इक ज़रा सा अब्र का टुकड़ा है जो महताब था
आख़िरी आँसू टपक जाने में हो जिस की फ़ना

ज़िंदगी अक़्वाम की भी है यूँही बे-ए'तिबार
रंग-हा-ए-रफ़्ता की तस्वीर है उन की बहार

इस ज़ियाँ-ख़ाने में कोई मिल्लत-ए-गर्दूं-वक़ार
रह नहीं सकती अबद तक बार-ए-दोश-ए-रोज़गार

इस क़दर क़ौमों की बर्बादी से है ख़ूगर जहाँ
देखता बे-ए'तिनाई से है ये मंज़र जहाँ

एक सूरत पर नहीं रहता किसी शय को क़रार
ज़ौक़-ए-जिद्दत से है तरकीब-ए-मिज़ाज-ए-रोज़गार

है नगीन-ए-दहर की ज़ीनत हमेशा नाम-ए-नौ
मादर-ए-गीती रही आबस्तन-ए-अक़्वाम-ए-नौ

है हज़ारों क़ाफ़िलों से आश्ना ये रहगुज़र
चश्म-ए-कोह-ए-नूर ने देखे हैं कितने ताजवर

मिस्र ओ बाबुल मिट गए बाक़ी निशाँ तक भी नहीं
दफ़्तर-ए-हस्ती में उन की दास्ताँ तक भी नहीं

आ दबाया मेहर-ए-ईराँ को अजल की शाम ने
अज़्मत-ए-यूनान-ओ-रूमा लूट ली अय्याम ने

आह मुस्लिम भी ज़माने से यूँही रुख़्सत हुआ
आसमाँ से अब्र-ए-आज़ारी उठा बरसा गया

है रग-ए-गुल सुब्ह के अश्कों से मोती की लड़ी
कोई सूरज की किरन शबनम में है उलझी हुई

सीना-ए-दरिया शुआओं के लिए गहवारा है
किस क़दर प्यारा लब-ए-जू मेहर का नज़्ज़ारा है

महव-ए-ज़ीनत है सनोबर जूएबार-ए-आईना है
ग़ुंचा-ए-गुल के लिए बाद-ए-बहार-ए-आईना है

नारा-ज़न रहती है कोयल बाग़ के काशाने में
चश्म-ए-इंसाँ से निहाँ पत्तों के उज़्लत-ख़ाने में

और बुलबुल मुतरिब-ए-रंगीं नवा-ए-गुलसिताँ
जिस के दम से ज़िंदा है गोया हवा-ए-गुलसिताँ

इश्क़ के हंगामों की उड़ती हुई तस्वीर है
ख़ामा-ए-क़ुदरत की कैसी शोख़ ये तहरीर है

बाग़ में ख़ामोश जलसे गुलसिताँ-ज़ादों के हैं
वादी-ए-कोहसार में नारे शबाँ-ज़ादों के हैं

ज़िंदगी से ये पुराना ख़ाक-दाँ मामूर है
मौत में भी ज़िंदगानी की तड़प मस्तूर है

पत्तियाँ फूलों की गिरती हैं ख़िज़ाँ में इस तरह
दस्त-ए-तिफ़्ल-ए-ख़ुफ़्ता से रंगीं खिलौने जिस तरह

इस नशात-आबाद में गो ऐश बे-अंदाज़ा है
एक ग़म यानी ग़म-ए-मिल्लत हमेशा ताज़ा है

दिल हमारे याद-ए-अहद-ए-रफ़्ता से ख़ाली नहीं
अपने शाहों को ये उम्मत भूलने वाली नहीं

अश्क-बारी के बहाने हैं ये उजड़े बाम ओ दर
गिर्या-ए-पैहम से बीना है हमारी चश्म-ए-तर

दहर को देते हैं मोती दीदा-ए-गिर्यां के हम
आख़िरी बादल हैं इक गुज़रे हुए तूफ़ाँ के हम

हैं अभी सद-हा गुहर इस अब्र की आग़ोश में
बर्क़ अभी बाक़ी है इस के सीना-ए-ख़ामोश में

वादी-ए-गुल ख़ाक-ए-सहरा को बना सकता है ये
ख़्वाब से उम्मीद-ए-दहक़ाँ को जगा सकता है ये

हो चुका गो क़ौम की शान-ए-जलाली का ज़ुहूर
है मगर बाक़ी अभी शान-ए-जमाली का ज़ुहूर