EN اردو
एक जिला-वतन की वापसी | शाही शायरी
ek jila-watan ki wapsi

नज़्म

एक जिला-वतन की वापसी

असरार-उल-हक़ मजाज़

;

फिर ख़बर गर्म है वो जान-ए-वतन आता है
फिर वो ज़िंदानी-ए-जिंदान-ए-वतन आता है

वो ख़राब-ए-गुल-ओ-रैहान-ए-वतन आता है
मिस्र से यूसुफ़-ए-कनआन-ए-वतन आता है

''कोई माशूक़ ब-सद-शौकत-ओ-नाज़ आता है
सुर्ख़ बैरक़ है समुंदर में जहाज़ आता है''

रिंद-ए-बे-कैफ़ को थी बादा-ओ-साग़र की तलाश
नाज़िर-ए-मंज़र-ए-फ़ितरत को थी मंज़र की तलाश

एक भँवरे को ख़िज़ाँ में थी गुल-ए-तर की तलाश
ख़ुद सनम-ख़ाना-ए-आज़र को थी आज़र की तलाश

मुज़्दा ऐ दोस्त कि वो जान-ए-बहार आ पहुँचा!
अपने दामन में लिए बर्क़-ओ-शरार आ पहुँचा!

अपना परचम वो कुछ इस अंदाज़ से लहराता है
रंग अग़्यार के चेहरों से उड़ा जाता है

कोई शादाँ, कोई हैराँ, कोई शरमाता है
कौन ये साहिल-ए-मशरिक़ पे नज़र आता है

अपने मयख़ाने का इक मय-कश-ए-बेहाल है ये
हाँ वही मर्द-ए-जवाँ-बख़्त ओ जवाँ-साल है ये

मर्द-ए-सरकश तुझे आदम की कहानी की क़सम
रूह-ए-इंसाँ के तक़ाज़ा-ए-निहानी की क़सम

जज़्बा-ए-ऐश की हर शोरिश-ए-फ़ानी की क़सम
तुझ को अपनी इसी बद-मस्त जवानी की क़सम

आ कि इक बार गले से तो लगा लें तुझ को
अपने आग़ोश-ए-मोहब्बत में उठा लें तुझ को

नुत्क़ तो अब भी है पर शोला-फ़िशाँ है कि नहीं
सोज़-ए-पिन्हाँ से तिरी रूह तपाँ है कि नहीं

तुझ पे ये बार ग़ुलामी का गिराँ है कि नहीं
जिस्म में ख़ून जवानी का रवाँ है कि नहीं

और अगर है तो फिर आ तेरे परस्तार हैं हम
जिंस-ए-आज़ादी-ए-इंसाँ के ख़रीदार हैं हम

साक़ी ओ रिंद तिरे हैं मय-ए-गुलफ़ाम तिरी
उठ कि आसूदा है फिर हसरत-ए-नाकाम तिरी

बरहमन तेरे हैं कुल मिल्लत-ए-इस्लाम तिरी
सुब्ह-ए-काशी तिरी, संगम की हसीं शाम तिरी

देख शमशीर है ये साज़ है ये जाम है ये
तू जो शमशीर उठा ले तो बड़ा काम है ये

देख बदला नज़र आता है गुलिस्ताँ का समाँ
साग़र ओ साज़ न ले, जंग के नारे हैं यहाँ

ये दुआएँ हैं वो मज़लूम की आहों का धुआँ
माइल-ए-जंग नज़र आता है हर मर्द-ए-जवाँ

सरफ़रोशान-ए-बला-कश का सहारा बन जा
उठ और अफ़्लाक-ए-बग़ावत का सितारा बन जा