EN اردو
देखने वाले की उलझन | शाही शायरी
dekhne wale ki uljhan

नज़्म

देखने वाले की उलझन

मुनीर नियाज़ी

;

सूरज में जो चेहरे देखे अब हैं सपने समान
और शुआओं में उलझी सी

गीले गीले होंटों की वो नई लाल मुस्कान
जैसे कभी न ज़िंदा थे ये

छोटी छोटी ईंटों वाले ठंडे बर्फ़ मकान
कहाँ गई वो शाम ढले की

सरसर करती तेज़ हवा की दिल पर खिची कमान
और सपना जो नींद में लाया

पूरी अधूरी ख़्वाहिशों का
इक दर्द भरा तूफ़ान

कैसे कोई कर सकता है इन सब में पहचान