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चाँद-चेहरा सितारा-आँखें | शाही शायरी
chand-chehra sitara-ankhen

नज़्म

चाँद-चेहरा सितारा-आँखें

उबैदुल्लाह अलीम

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मिरे ख़ुदाया मैं ज़िंदगी के अज़ाब लिक्खूँ कि ख़्वाब लिक्खूँ
ये मेरा चेहरा ये मेरी आँखें

बुझे हुए से चराग़ जैसे
जो फिर से चलने के मुंतज़िर हों

वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें
वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें

जिन्हों ने पैमाँ किए थे मुझ से
रफ़ाक़तों के मोहब्बतों के

कहा था मुझ से कि ऐ मुसाफ़िर रह-ए-वफ़ा के
जहाँ भी जाएगा हम भी आएँगे साथ तेरे

बनेंगे रातों में चाँदनी हम तो दिन में साए बिखेर देंगे
वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें

वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
वो अपने पैमाँ रफ़ाक़तों के मोहब्बतों के

शिकस्त कर के
न जाने अब किस की रहगुज़र का मनारा-ए-रौशनी हुए हैं

मगर मुसाफ़िर को क्या ख़बर है
वो चाँद-चेहरा तो बुझ गया है

सितारा-आँखें तो सो गई हैं
वो ज़ुल्फ़ें बे-साया हो गई हैं

वो रौशनी और वो साए मिरी अता थे
सो मेरी राहों में आज भी हैं

कि मैं मुसाफ़िर रह-ए-वफ़ा का
वो चाँद-चेहरा सितारा-आँखें

वो मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें
हज़ारों चेहरों हज़ारों आँखों

हज़ारों ज़ुल्फ़ों का एक सैलाब-ए-तुंद ले कर
मिरे तआक़ुब में आ रहे हैं

हर एक चेहरा है चाँद-चेहरा
हैं सारी आँखें सितारा-आँखें

तमाम हैं
मेहरबाँ साया-दार ज़ुल्फ़ें

मैं किस को चाहूँ मैं किस को चूमूँ
मैं किस के साए में बैठ जाऊँ

बचूँ कि तूफ़ाँ में डूब जाऊँ
न मेरा चेहरा न मेरी आँखें

मिरे ख़ुदाया मैं ज़िंदगी के अज़ाब लिक्खूँ कि ख़्वाब लिक्खूँ