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ऐ शाम मेहरबाँ हो | शाही शायरी
ai sham mehrban ho

नज़्म

ऐ शाम मेहरबाँ हो

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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ऐ शाम मेहरबाँ हो
ऐ शाम-ए-शहरयाराँ

हम पे भी मेहरबाँ हो
दोज़ख़ी दोपहर सितम की

बे-सबब सितम की
दोपहर दर्द-ओ-ग़ैज़-ओ-ग़म की

बे-ज़बाँ दर्द-ओ-ग़ैज़-ओ-ग़म की
इस दोज़ख़ी दोपहर के ताज़ियाने

आज तन पर धनक की सूरत
क़ौस-दर-क़ौस बट गए हैं

ज़ख़्म सब खुल गए हैं
दाग़ जाना था छट गए हैं

तिरे तोशे में कुछ तो होगा
मरहम-ए-दर्द का दो-शाला

तन के उस अंग पर उढ़ा दे
दर्द सब से सिवा जहाँ हो

ऐ शाम मेहरबाँ हो
ऐ शाम-ए-शहरयाराँ

हम पे मेहरबाँ हो
Evening, Be Gracious

दोज़ख़ी दश्त नफ़रतों के
बेदर्द नफ़रतों के

किर्चियाँ दीदा-ए-हसद की
ख़स-ओ-ख़ाशाक रंजिशों के

इतनी सुनसान शाहराहें
इतनी गुंजान क़त्ल-गाहें

जिन से आए हैं हम गुज़र कर
आबला बन के हर क़दम पर

यूँ पाँव कट गए हैं
रस्ते सिमट गए हैं

मख़मलें अपने बादलों की
आज पाँव-तले बिछा दे

शाफ़ी-ए-कर्ब-ए-रह-रवाँ हो
ऐ शाम मेहरबाँ हो

ऐ मह-ए-शब-ए-निगाराँ
ऐ रफ़ीक़-ए-दिल-फ़िगाराँ

इस शाम हम-ज़बाँ हो
ऐ शाम मेहरबाँ हो

ऐ शाम मेहरबाँ हो
ऐ शाम-ए-शहरयाराँ

हम पे मेहरबाँ हो
O evening, be gracious—

O evening of the city of friends
be gracious to me.

The hellish noon of oppression,
senseless cruelties,

the noon of pain, rage and sorrow,
inarticulate pain, rage and sorrow,

the whiplashes of this demonic noon—
are all, like the rainbow, branded no my body

arc within arc.