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अगर है जज़्बा-ए-तामीर ज़िंदा | शाही शायरी
agar hai jazba-e-tamir zinda

नज़्म

अगर है जज़्बा-ए-तामीर ज़िंदा

अहमद नदीम क़ासमी

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अगर है जज़्बा-ए-तामीर ज़िंदा
तो फिर किस चीज़ की हम में कमी है

जहाँ से फूल टूटा था वहीं से
कली सी इक नुमायाँ हो रही है

जहाँ बिजली गिरी थी अब वही शाख़
नए पत्ते पहन कर तन गई है

ख़िज़ाँ से रुक सका कब मौसम-ए-गुल
यही अस्ल-ए-उसूल-ए-ज़िंदगी है

अगर है जज़्बा-ए-तामीर ज़िंदा
खंडर से कल जहाँ बिखरे पड़े थे

वहीं से आज ऐवाँ उठ रहे हैं
जहाँ कल ज़िंदगी मबहूत सी थी

वहीं पर आज नग़्मे गूँजते हैं
ये सन्नाटे से ली है सम्त-ए-हिजरत

यही अस्ल-ए-उसूल-ए-ज़िंदगी है
अगर है जज़्बा-ए-तामीर ज़िंदा

तो फिर किस चीज़ की हम में कमी है
रहे यख़-बस्तगी का ख़ौफ़ जब तक

शुआएँ बर्फ़ पर लर्ज़ां रहेंगी
न धीरे जम नहीं पाएँगे जब तक

चराग़ों की लवें रक़्साँ रहेंगी
बशर की अपनी ही तक़दीर से जंग

यही अस्ल-ए-उसूल-ए-ज़िंदगी है
अगर है जज़्बा-ए-तामीर ज़िंदा

तो फिर किस चीज़ की हम में कमी है