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आख़िरी सच | शाही शायरी
aaKHiri sach

नज़्म

आख़िरी सच

मुनव्वर राना

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चेहरे तमाम धुँदले नज़र आ रहे हैं क्यूँ
क्यूँ ख़्वाब रतजगों की हवेली में दब गए

है कल की बात उँगली पकड़ कर किसी की मैं
मेले मैं घूमता था खिलौनों के वास्ते

जितने वरक़ लिखे थे मिरी ज़िंदगी ने सब
आँधी के एक झोंके में बिखरे हुए हैं सब

मैं चाहता हूँ फिर से समेटूँ ये ज़िंदगी
बच्चे तमाम पास खड़े हैं बुझे बुझे

शोख़ी न जाने क्या हुई रंगत कहाँ गई
जैसे किताब छोड़ के जाते हुए वरक़

जैसे कि भूलने लगे बच्चा कोई सबक़
जैसे जबीं को छूने लगे मौत का अरक़

जैसे चराग़ नींद की आग़ोश की तरफ़
बढ़ने लगे अँधेरे की ज़ुल्फ़ें बिखेर कर

भूले हुए हैं होंट हँसी का पता तलक
दरवाज़ा दिल का बंद हुआ चाहता है अब

क्या सोचना कि फूल से बच्चों का साथ है
अब मैं हूँ अस्पताल का बिस्तर है रात है