EN اردو
आख़िरी ख़त | शाही शायरी
aaKHiri KHat

नज़्म

आख़िरी ख़त

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

;

वो वक़्त मिरी जान बहुत दूर नहीं है
जब दर्द से रुक जाएँगी सब ज़ीस्त की राहें

और हद से गुज़र जाएगा अंदोह-ए-निहानी
थक जाएँगी तरसी हुई नाकाम निगाहें

छिन जाएँगे मुझ से मिरे आँसू मिरी आहें
छिन जाएगी मुझ से मिरी बे-कार जवानी

शायद मिरी उल्फ़त को बहुत याद करोगी
अपने दिल-ए-मासूम को नाशाद करोगी

आओगी मिरी गोर पे तुम अश्क बहाने
नौ-ख़ेज़ बहारों के हसीं फूल चढ़ाने

शायद मिरी तुर्बत को भी ठुकरा के चलोगी
शायद मिरी बे-सूद वफ़ाओं पे हँसोगी

इस वज़्-ए-करम का भी तुम्हें पास न होगा
लेकिन दिल-ए-नाकाम को एहसास न होगा

अल-क़िस्सा मआल-ए-ग़म-ए-उल्फ़त पे हँसो तुम
या अश्क बहाती रहो फ़रियाद करो तुम

माज़ी पे नदामत हो तुम्हें या कि मसर्रत
ख़ामोश पड़ा सोएगा वामांदा-ए-उल्फ़त