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ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू | शाही शायरी
zulmat-e-shab-e-hijr ki aafat hai aur tu

ग़ज़ल

ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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ज़ुल्मात-ए-शब-ए-हिज्र की आफ़ात है और तू
जो दम है ग़नीमत है कि फिर रात है और तो

इक हम से ही मिलने में तअम्मुल है वगर्ना
ग़ैरों से वही तेरी मुलाक़ात है और तू

याँ रोज़-ए-सियाह ओ शब-ए-तारीक है और हम
वाँ आईना-ए-बाग़-ए-तिलिस्मात है और तू

मर जाने की जा है कि सनम दो दो पहर तक
हर इक से सर-ए-बाम इशारात है और तू

सौ बातें हुईं तो न मिला अपने से ऐ दिल
क्या बात है तेरी कि वही बात है और तू

ने हूर न इंसाँ न परी और न फ़रिश्ता
जिस हुस्न ओ सबाहत में तिरी गात है और तू

ज़िंदान-ए-फ़िराक़ ओ लब-ए-ख़ामोश है और हम
सैर-ए-चमन ओ हर्फ़-ओ-हिकायात है और तू

होवेगा न ये हस्ती-ए-फ़ानी का बखेड़ा
इक रोज़ ये होगा कि तिरी ज़ात है और तू

नौमीद न हो हिज्र में ऐ 'मुसहफ़ी' उस से
दो दिन को वही लुत्फ़-ओ-इनायात है और तू

कुढ़ मत कि फ़राग़त की भी आ जाए है साअत
फिर मान दिवाने वही औक़ात है और तू