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ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है | शाही शायरी
zulm ki kuchh miad nahin hai

ग़ज़ल

ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है

अली सरदार जाफ़री

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ज़ुल्म की कुछ मीआ'द नहीं है
दाद नहीं फ़रियाद नहीं है

क़त्ल हुए हैं अब तक कितने
कू-ए-सितम को याद नहीं है

आख़िर रोएँ किस को किस को
कौन है जो बर्बाद नहीं है

क़ैद चमन भी बन जाता है
मुर्ग़-ए-चमन आज़ाद नहीं है

लुत्फ़ ही क्या गर अपने मुक़ाबिल
सतवत-ए-बर्क़-ओ-बाद नहीं है

सब हों शादाँ सब हों ख़ंदाँ
तन्हा कोई शाद नहीं है

दावत-ए-रंग-ओ-निकहत है ये
ख़ंदा-ए-गुल बर्बाद नहीं है