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ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए | शाही शायरी
zulf-e-barham sambhaal kar chaliye

ग़ज़ल

ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए

अब्दुल हमीद अदम

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ज़ुल्फ़-ए-बरहम सँभाल कर चलिए
रास्ता देख-भाल कर चलिए

मौसम-ए-गुल है अपनी बाँहों को
मेरी बाँहों में डाल कर चलिए

मय-कदे में न बैठिए ताहम
कुछ तबीअ'त बहाल कर चलिए

कुछ न देंगे तो क्या ज़ियाँ होगा
हर्ज क्या है सवाल कर चलिए

है अगर क़त्ल-ए-आम की निय्यत
जिस्म की छब निकाल कर चलिए

किसी नाज़ुक-बदन से टकरा कर
कोई कस्ब-ए-कमाल कर चलिए

या दुपट्टा न लीजिए सर पर
या दुपट्टा सँभाल कर चलिए

यार दोज़ख़ में हैं मुक़ीम 'अदम'
ख़ुल्द से इंतिक़ाल कर चलिए