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ज़ेर-ए-बाम गुम्बद-ए-ख़ज़रा अज़ाँ | शाही शायरी
zer-e-baam gumbad-e-KHazra azan

ग़ज़ल

ज़ेर-ए-बाम गुम्बद-ए-ख़ज़रा अज़ाँ

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

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ज़ेर-ए-बाम गुम्बद-ए-ख़ज़रा अज़ाँ
वो बिलाली सौत वो सामेअ' कहाँ

खोजता है अन-गिनत मस्जूद में
क़ुल-हो-अल्लाहो-अहद का साएबाँ

बुत-तराशी चार-सू है जल्वा-गर
दे गई सब की जबीनों को निशाँ

यासियत ने कर्ब के दर वा किए
ख़ुश्क उम्मीदों का गुलशन है यहाँ

तो रहीन-ए-ख़ाना-हा-ए-इज़्तिराब
उठ रहा है तेरे चिलमन से धुआँ

ज़ुल्मतें साया-फ़गन हैं हर तरफ़
बाम-ओ-दर पर रक़्स में नौ-मीदियाँ

रुक ज़रा पढ़ कलमा-ए-ला-तक़नतू
ख़ुद-बख़ुद रौज़न खुलेंगे दरमियाँ

हौसलों के फिर से उग आएँगे पर
अज़्म-ए-मोहकम को बना ले साएबाँ