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ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़ | शाही शायरी
zamir-e-lala mai-e-lal se hua labrez

ग़ज़ल

ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़

अल्लामा इक़बाल

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ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़
इशारा पाते ही सूफ़ी ने तोड़ दी परहेज़

बिछाई है जो कहीं इश्क़ ने बिसात अपनी
किया है उस ने फ़क़ीरों को वारिस-ए-परवेज़

पुराने हैं ये सितारे फ़लक भी फ़र्सूदा
जहाँ वो चाहिए मुझ को कि हो अभी नौ-ख़ेज़

किसे ख़बर है कि हंगामा-ए-नशूर है क्या
तिरी निगाह की गर्दिश है मेरी रुस्ता-ख़ेज़

न छीन लज़्ज़त-ए-आह-ए-सहर-गही मुझ से
न कर निगह से तग़ाफ़ुल को इल्तिफ़ात आमेज़

दिल-ए-ग़मीं के मुआफ़िक़ नहीं है मौसम-ए-गुल
सदा-ए-मुर्ग़-ए-चमन है बहुत नशात अंगेज़

हदीस-ए-बे-ख़बराँ है तू बा ज़माना ब-साज़
ज़माना बा तो न साज़द तू बा ज़माना सातेज़