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ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा | शाही शायरी
zaban suKHan ko suKHan bankpan ko tarsega

ग़ज़ल

ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा

नासिर काज़मी

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ज़बाँ सुख़न को सुख़न बाँकपन को तरसेगा
सुख़न-कदा मिरी तर्ज़-ए-सुख़न को तरसेगा

नए पियाले सही तेरे दौर में साक़ी
ये दौर मेरी शराब-ए-कुहन को तरसेगा

मुझे तो ख़ैर वतन छोड़ कर अमाँ न मिली
वतन भी मुझ से ग़रीब-उल-वतन को तरसेगा

इन्ही के दम से फ़रोज़ाँ हैं मिल्लतों के चराग़
ज़माना सुहबत-ए-अरबाब-ए-फ़न को तरसेगा

बदल सको तो बदल दो ये बाग़बाँ वर्ना
ये बाग़ साया-ए-सर्व-ओ-समन को तरसेगा

हवा-ए-ज़ुल्म यही है तो देखना इक दिन
ज़मीन पानी को सूरज किरन को तरसेगा